मैं अनेकों भावधरों में बहा
मैं अनेकों भावधरों में बहा
मैं अनेकों भावधारों में बहा-
इन क़्वार-भादों में रुका
जौ उड़द की खेतियों में ठिठका, हँसा
पर्वतों की प्रीत में बांधा गया।
कुछ अकिंचन था कि ऐसा
भर दिया हो घट किसी ने
प्रेत-बाधा से की ज्यों जकड़ा गया हो।
चीड़ के वन में बरसते-पात धरती
जब महकती गन्ध दोपहर बाद वाली
कुछ अकिंचन सूत्र ही तो हैं कि ऐसे
जहाँ जीवन को नवल माधुर्य मिलता।
ये यहाँ का श्रांत जीवन ही सुहाता है मुझे
इन्हीं सूने रास्तों पर मणि मरकत-सा पला हूँ।
आज भी जीवन वही है, आज भी वह चेतना
मधुरता का अंश मिलता, वही जीवन देशना।
मैं समझता हूँ, अनेकों पल जगत में छिप रखे
जहाँ मन को ठहरना सोचना पड़ता कि कैसे-
इस तरावट, इस सजावट से उबरकर चल सके।
पराभव हो गया- उस बाजार का।
तिरोहित हो गया यह संसार भी
आ गया इन घाटियों में - बस गया जो
इसी पर्वत-चेतना का अंश बनकर।