मैं ऐसी कविता बन जाऊँ...
मैं ऐसी कविता बन जाऊँ...
मार्मिक सृजन बन मैं नेत्र सजल कर जाऊँ
अश्रु की अविरल धारा बन तेरे नयनों से झर जाऊँ
ह्रदय द्रवित कर पाषाण सा तेरा हे मानुष
मैं तेरी निष्ठुरता को पिघलाऊँ
ऐसी कविता बन जाऊँ
मैं ऐसी कविता बन जाऊँ
छल कपट हो कोसों दूर
प्रेम दया करूणा का तुझपे हर कदम हो सुरूर
बैर द्वेष की अग्नि को मैं तेरे मन से बुझाऊँ
बुरी भावना को मैं सद्भावना का पाठ पढ़ाऊँ
ऐसी कविता बन जाऊँ
मैं ऐसी कविता बन जाऊँ
काम लोभ नामक शत्रुओं को मैं
धैर्य विवेक से मार गिराऊँ
क्रोध और प्रतिशोध रहें सदा दूर ही सबसे
सद्भावना और भाईचारे की कुछ
ऐसी अलख मैं जलाऊँ
कलुषित विचारों को मैं
सुविचारों में परिवर्तित कर पाऊँ
ऐसी कविता बन जाऊँ
मैं ऐसी कविता बन जाऊँ।