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निशा शर्मा

Abstract

4.5  

निशा शर्मा

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मैं ऐसी कविता बन जाऊँ...

मैं ऐसी कविता बन जाऊँ...

1 min
275


मार्मिक सृजन बन मैं नेत्र सजल कर जाऊँ

अश्रु की अविरल धारा बन तेरे नयनों से झर जाऊँ

ह्रदय द्रवित कर पाषाण सा तेरा हे मानुष

मैं तेरी निष्ठुरता को पिघलाऊँ


ऐसी कविता बन जाऊँ

मैं ऐसी कविता बन जाऊँ

छल कपट हो कोसों दूर

प्रेम दया करूणा का तुझपे हर कदम हो सुरूर


बैर द्वेष की अग्नि को मैं तेरे मन से बुझाऊँ

बुरी भावना को मैं सद्भावना का पाठ पढ़ाऊँ

ऐसी कविता बन जाऊँ

मैं ऐसी कविता बन जाऊँ

काम लोभ नामक शत्रुओं को मैं


धैर्य विवेक से मार गिराऊँ

क्रोध और प्रतिशोध रहें सदा दूर ही सबसे

सद्भावना और भाईचारे की कुछ

ऐसी अलख मैं जलाऊँ

कलुषित विचारों को मैं


सुविचारों में परिवर्तित कर पाऊँ

ऐसी कविता बन जाऊँ

मैं ऐसी कविता बन जाऊँ।


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