मायके जाने में आनाकानी
मायके जाने में आनाकानी
मायके जाने के नाम से ही लगती थी जो खिलखिलाने
ढूंढती है अब वो ना जाने के सौ बहाने
दिल कचोटता है वहां ,मां पिता बिन
काटे नहीं कटता अब वहां एक भी दिन
ऐसा नहीं कि भाई भाभी देते नहीं मान
रखते हैं वो तो उसका पूरा पूरा ध्यान
भतीजे भतीजियां भी मंडराते हैं उसके चारों ओर
संग उनके वो होती नहीं बिल्कुल भी बोर
पर गेट पर इंतज़ार करती मां नहीं देती दिखलाई
"तू इतने कम दिन को क्यों आई",
पिता का शिकायती स्वर नहीं देता है सुनाई
याद आता है उसे, मां का अपने पिटारे से बार बार कुछ कुछ दिखाना
आग्रह कर करके उसे भरे पेट पर भी खिलाना
अचार, चिप्स, पापड़, मंगोड़ी, बड़ियां
थोक के भाव उसके लिये पैक कराना
करे जो वो ले जाने में आनाकानी, तो हो जाता शुरू उनका बड़बड़ाना
पिता का बार बार बाज़ार के चक्कर लगा आना
मना करने के बावजूद भी उसकी पसंद की चीज़ें ले आना
कितनी कमज़ोर हो गई है,कह उनका चिंता जताना
अपने आप रात को उनका, बादाम भिगो आना
डाॅक्टर से उसके लिये टाॅनिक लिखवा लाना
मां से बिन बात ही उसकी नज़र उतरवाना
लापरवाही पर उसकी, प्यार से उनका डांटना डपटना अब होता नहीं
सब मिलता है पर खुद को बच्चा समझने का वो एहसास अब होता नहीं
अब उनकी तस्वीरों पर चढ़ा दिखाई देता है हार
देख ये नज़ारा, मन उसका रोता है ज़ार ज़ार।