माया बिबस
माया बिबस
क्या खूब थे क्या रुख़ निकले हो,
क्या मूल थे क्या सूत निकले हो।
कल माया बिबस होते थे सब मुढ़ा के संत,
आज माया के लिये बन रहे सब निगूढ़ा संत।
खरीद परोक्त कर सब आसन बैठे,
खहिंच पहिंच कर सब न्ृप बन बैठे।
जपतप न कछु करैं व्याला,
संत मंत सब ओढ़हिं दुशाला।
बसावहु दिल में अपने सब नीति विचार,
करहु खुल कर साम दाम दण्ड भेद विचार।
लोकतंत्र में राजनीति की रचना विविध प्रकार,
संविधान में न्यायगति सब जातिगत आधार।
