मानव काअपराध
मानव काअपराध
सन्नाटा पसरा, दहसत का साया दर्द की महामार जीवन का विश्वास
गायब चीख रही मानवता को सूझ नही कोई राह।।
बेबस विवश लाचार सिसकी से स्तब्ध संसार दिल टूटते रिश्ते
छूटते लाख जतन करते कोई नही उपाय।।
विरह वेदना की सिसकी है सब लूट जाने की सिसकी है
युग के असाय हो जाने की सिसकी घनघोर निराशा
तमश में आशा के एक किरण की चाह।।
रिश्ते रिश्तों से मुहँ छिपाते मजबूरी आफत दुःख दर्द साथ नहीं निभा पाते
संग एक दूजे के जा नहीं पाते सिसकी ही दिल की आवाज़।।
देखे बिना चैन नहीं था जिनको सपनो में भी नहीं आते
रूठ गया है क्या भाग्य भगवान नीति नियत का तांडव का यही विधान।।
प्रकृति साथ जो किया खिलवाड़ सिसकी प्रकृति की मार
गलियां नगर मोहल्लों सड़कों पर कोलाहल
ध्वनि गूँजता आकाश धुंए की दुन्ध से काला नीला आकाश।।
नदियाँ झरने झील राहत में नही बह रहा युग मानव
गंदा प्रवाह प्रकृति रूठने की है सिसकी मार।।
बैठो घर में कुछ मुक्त प्रदूषण होने दो तब तक करो इन्तज़ार
दावा दम्भ अहंकार मानव के विखरे सिसकी अंर्तमन की पश्चाताप।।
काल भी युग मानव की सिसकी पर अट्टाहास
मैं तो खामोश देखरहा हो खुद मानव का मानवता काल।।
ईश्वर अल्ला भगवान गीता और कुराण दर किनार किया
युग मानव खुद बन बैठा ईश्वर अल्लाह गीता और कुरान।।
विधाता नीति नियत को बौना कर प्रकृति प्रयदुषित कर कितने ही
प्राणी को अतीत बना डाला अब पछताना क्या जब सिसकी ही साथ।।
