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Kamal Purohit

Abstract Classics

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Kamal Purohit

Abstract Classics

मानव का मन कवि बनता है (गीत)

मानव का मन कवि बनता है (गीत)

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नया नया पहलू लाता है, जग का रूप नया गढ़ता है।

अपने तन का मोल चुकाकर, मानव का मन कवि बनता है।

शशि को धरती पर लाने की, बातें यह सोचा करता है

कभी स्वप्न में,आसमान में, जाकर सूरज सा बनता है।

कभी बहे यह शीत अनिल सा, कभी अनल बनकर जलता है।

अपने तन का मोल चुकाकर,मानव का मन कवि बनता है।

कभी कभी ईश्वर से लड़ता, युद्ध विषम ही यह बेढंगा।

कभी ईश के रंग में रंगकर, खुद हो जाता है सतरंगा।


नए नए बिंबों से प्रभु का, पूजन अर्चन भी करता है।

अपने तन का मोल चुकाकर, मानव का मन कवि बनता है।

गाथा कितनी प्रेम जगत की,सारी गाथा सुनी निराली

कृष्ण बजाते जब भी बंशी, राधा सुनती हो मतवाली।


इंद्रधनुष से रंग को लेकर, प्रेम जगत को मन रंगता है

अपने तन का मोल चुकाकर, मानव का मन कवि बनता है।

रिश्तों को अनमोल बनाता, हर रिश्तों में यह बँधता है।

दिल से दिल तक बातें पहुँचें, ऐसे पुल को यह बुनता है।

ठेस लगा देते जब अपने, उस पल में आहे भरता है

अपने तन का मोल चुकाकर, मानव का मन कवि बनता है

आशा और निराशा बनती, जीवन यह चलता रहता है।

कभी खुशी मिलती पल भर को, कभी दुःख सहना पड़ता है।

महसूस करे गैरों का ग़म, उस ग़म की रचना रचता है।

अपने तन का मोल चुकाकर, मानव का मन कवि बनता है।


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