मानव-दंश से आहत प्रकृति
मानव-दंश से आहत प्रकृति
थोड़ा तो रुक जाओ अब
कहीं हो न जाए देर बड़ी।
माँ की गोद में कर दिया
कांक्रीट की इमारतें खड़ी।।
ख़ामोशी ही ख़ामोशी है
निर्जन हो गईं गलियाँ।
इस पूरे सन्नाटे में है
कैद कितनी तितलियाँ।।
खो गई कोयल और गौरय्या
शेर हिरन, प्यारी सी गैय्या।
नहीं खिलें अब पुष्प सुकोमल
अवशेष बने हैं नीम और संदल।।
गली मोहल्ले में और सड़क पर
हो रहा कर्कशता का गान।
घायल हैं सबके हृदय फेफड़े, नैन
लहुलुहान हुए जा रहे जैसे दोनों कान।।
पूजनीय थीं, वंदनीय थीं,
नदियाँ सभी महान।
परिवर्तित हो गईं सभी अब
मानों दूषित जल की खान।।
उड़ने को सब हैं बेताब
पर मन में छाया संताप।
हुई विषैली आज हवाएँ
निर्मल जल में ताप।।
वेद ऋचाएं भी न कर पाएँ
इस संकट का समाधान।
अपने हाथों नष्ट किए हैं
हमने प्रकृति विधान।।
अवनि, अंबर,ऋतुएँ मौसम
चाह रहीं अस्तित्व।
मानव-दंश से आहत प्रकृति
कैसे करे ममत्व। ।
वृक्ष कट रहे, घटते जंगल
सिमट रहे खलिहान।
जल और वायु करते दूषित
अस्तित्व विनाश हेतु साधें संधान। ।
आधुनिकीकरण की अंधी गति ने
लील लिये सारे अब उद्यान।
भटक रहे हैं पशु निरीह सब
इसका नहीं किसी को भान।।
मूक बधिर सी भावी पीढ़ी
काल दंश को देती दावत।
जिस मिट्टी में पला बढ़ा,
उसके ही संरक्षण की नहीं है फितरत।।
अब तो अपनी आँखें खोलो
ले लो कुछ संज्ञान।
थोड़ी सी तो सुधार लो अपनी
प्रकृति का भी रख ले थोड़ा ध्यान। ।
हरीतिमा की एक लहर से
भर दो इसका दामन।
गुंजित हो जायें फिर से अपनी
धरती और आकाश। ।
स्वच्छ हवा और मृदु पेयजल
सुन्दर धरती नीला अम्बर ।
पेड़-पौधे और जीव-जन्तु
सभी प्रफुल्लित, न होंगे फिर हम लाचार ।।