माँ
माँ
माँ,
शब्द जितना व्यापक,
उतनी ही माँ की व्यापकता,
कष्टो को भूलकर,
गढ़ती हैं हमारा जहाँ।
गल पल पल खुद
बनाती है वो हमेंं,
कभी मीठी फटकार से,
कभी निर्मल से प्यार से,
सीख देती हैं नित कुछ पाठ हमें,
वो है माँ,
जो थकती नहीं,
कभी रुकती नहीं,
मुस्कान मुख में लिए,
बस सिखाती हैं हमें,
जीवन के मायने,
कुछ सलीके,
दुःख से सीखने के तरीके,
बढ़ाती हैं प्रेरणा से,
कुछ हमें नव पथ पर,
बनाने हमें एक वृक्ष,
जो दे छांव हर थके
हारे पथिक को,
ऐसी है वो शक्ति माँ,
जो साक्षात रूप जगदम्बा का,
कर्ज चुका नहीं सकते हम,
माँ के उन कर्जो को,
नमन हर माँ को,
उस साक्षात जगजननी को।।