मर्द नहीं हैं जागीर किसी की
मर्द नहीं हैं जागीर किसी की
क्यों लड़ती हो बात बात पर ?
क्यों आपस में तुम झगड़ती हो ?
क्या लाई थी साथ में तुम जो,
इतना तुम खुद पर इतराती हो ?
सास है तुम्हारी मां के जैसी ही,
क्यों उसको इतना रुलाती हो ?
क्यों पति पर समझती हो अधिकार खुद का ही,
क्यों मां से उसको तुम छुड़ाती हो ?
बहु तुम्हारी है तुम्हारी बेटी जैसी,
क्यों उसको बिना कारण तुम सताती हो ?
क्यों अपने निजी स्वार्थ की खातिर,
बेटे और बहु के झगड़े कराती हो ?
ननद तुम्हारी है तुम्हारी बहन के जैसी,
क्यों उसको अपने भाई से छुड़ाती हो ?
क्यों उसको कुछ भी देने से तुम,
आखिर इतना सदा कतराती हो ?
भाभी तुम्हारी है तुम्हारी मां के जैसी,
क्यों उसके विरुद्ध भाई के कान तुम भरती हो ?
क्यों ससुराल में खुद का नाम करने हेतु,
भाई और भाभी को लूट जाती हो ?
मर्द तो है पति, बेटा और भाई किसी का,
क्यों उसको हर रिश्ता निभाने से तुम सब रोकती हो ?
क्यों खुद से रिश्ता निभाने के लिए,
अन्य रिश्ते तोड़ने के लिए उसे मजबूर तुम करती हो ?
बेटा, पति और भाई नहीं है जागीर किसी की,
क्यों उस पर केवल खुद का अधिकार तुम समझती हो ?
क्यों उसकी संपति को अपनी समझकर,
उसको अपनी संपत्ति से ही बेदखल तुम करती हो ?