हैं न स्त्री, ताकतवर
हैं न स्त्री, ताकतवर
दफ्तर से लौट के
घर के चूल्हे चोखे पर आती हैं,
चूल्हे चोखे से लौट के
बच्चे की पढ़ाई पर आती हैं,
बच्चों से लौट के
पति के समय में आती हैं,
पति से लौट के वो
वो कभी नहीं आ पाती
खुद में, वो वही रह जाती हैं
जहां से वो शुरू करती हैं
दिन अपना,
हैं न स्त्री इतनी निपूर्ण की
वो खुद ने न मिल कर भी
औरों को खुद से मिलवा देती हैं,
हैं न नारी इतनी साहसी
वो मैं को भूल
मां, बहु, पत्नी, बेटी में ही
बस जाती हैं,
हैं न औरत इतनी निडर,
वो औरत रूप में पैदा होकर
मर्द की दुनिया बन जाती हैं।
बोलो हैं न वो सहजता,
दयालु और करुणा की मुहरत ?