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Sunil Kumar

Inspirational

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Sunil Kumar

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बेड़ियां

बेड़ियां

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सदियों से पड़ी हैं बेड़ियां पांव में

फिर भी चलती हूं मैं धूप छांव में 

कभी तपती दुपहरी 

कभी शीतल छांव में

मैं चलती हूं निरंतर

अपने अस्तित्व की तलाश में।


मैं मुक्त होना चाहती हूं 

इन बेड़ियां के बंधन से

जो बात-बात पर मुझे टोकती हैं

मेरे बढ़ते कदमों को रोकती हैं

ये बेड़ियां जो अक्सर देती हैं

मुझे ताने-उलाहने

मेरे चरित्र पर लगती हैं अंगुलियां उठाने

पर मैं कर देती हूं अक्सर नजर अंदाज़ 

इनके तानों को इनके उलाहनों को

क्योंकि मुझे सलीके से तोड़ना है 

इन बेड़ियों का मजबूत जाल 

जाना है चौखट के उस पार 

और भरनी है मुझे उन्मुक्त उड़ान 

पूरे करने हैं अपने सभी अरमान।


मैं जानती हूं ये बेड़ियां अब मुझे

आगे बढ़ने से रोक नहीं पाएंगी

मेरे हौसलों के आगे सिमटती जाएंगी

धीरे-धीरे खोती जाएंगी ये अपना वजूद

और एक दिन खुद ही कर देंगी

मेरे पांवों को अपने बंधन से आजाद

चौखट के उस पार जाने को  

सपनों को सच कर दिखाने को। 



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