मां पापा
मां पापा
ये कैसी विडंबना है,
ये कैसा विधान है श्रृष्टि का।
कि माता, पिता कभी खुद के लिए न जिए।
माता, पिता हमेशा बंट के जिए।
कभी जिम्मेदारियों में उलझे रहे।
मैं गैर जिम्मेदार न हो जाऊं कहीं, वो हरदम यही सिखाते रहे।
तमाम उम्र मेरी सारी ख्वाहिशें पूरी करने में गुजार दी।
मेरे मां पापा ने अपनी सारी खुशियां मेरी खुशियों पे वार दीं।
वो काम करते रहे दिन रात, ताकि मैं आराम में रहूं।
बस एक तमन्ना लिए रहे कि कभी तो मैं दो घड़ी उनका रहूं।
मेरा थोड़ा सा वक्त पाने को, वो कोशिश हमेशा करते रहे।
मेरी हर छोटी सी जिद्द के लिए ताउम्र जद्दोजहद करते रहे।
मेरे पिता हमेशा एक बरगद से खड़े रहे।
बिना झुके, बिना थके, वो अडिग बने रहे।
और मां लताओं की तरह आंचल की छांव देती रहीं।
कभी किसी का दिल न दिखाऊं ये सिखाती रहीं।
जब कभी देर से जगती तो पापा गोद में उठाकर बिठाते।
मेरे देर से उठने पे वो भी मेरे साथ मां की डांट खाते।
कहतीं मां आप ही बिगाड़ रहे हैं।।
और कभी पापा कुछ कहते तो कहती रहने दो सब कर लेगी।
मां,पापा ने मेरा होंसला कभी टूटने न दिया।
विदाई के बाद भी कभी खुद से मुझे दूर होने न दिया।
मां, पापा हमेशा मेरी ऊंचाइयों की सीढ़ी बने रहे।
शुरू से शुरू करूं तो वो दोनों ही मेरी दुनियां रहे।