मां का आंगन
मां का आंगन
बाहें फैलाए खड़ी थी मां
और खड़ा था मेरा बचपन
लिपट गई आकर यादें
जब देखा घर का आंगन
लग कर मां के गले से
लौट आया मधुर बचपन
मिल कर माता पिता से
पुलकित हो गये तन मन
मुझे देख मुस्कुराया मां का आंगन
बच्चे की तरह खींच लिया मेरा दामन
यहीं बिलोती दही को मां
बनाती छाछ और मक्खन
यहीं जलाया करती चूल्हा
और पकाती भोजन
दाल के तड़के की खुशबू
घर आंगन महकाती
मां खड़े मसाले सिलबट्टे पर
पीस कर छौंक लगाती
रसोई बनने के बाद सर्दियों में
मूंगफली और शकरकंदी
चूल्हे की बची आग में सेंका करती
नींद ना आने तक चूल्हे के आसपास
महफ़िल लगा करती
घर के कच्चे
आंगन को मां
गोबर मिट्टी से लीपा करती
मुलतानी मिट्टी से फूल पत्तों की
रंगोली बनाया करती
आंगन में खड़े नीम को देख
बचपन याद आया
इसकी मोटी डाल पर
डला झूला याद आया
बसंत याद आया
इसका पुनः पल्लवित होना
याद आया
सावन याद आया
बरसात में इसके नीचे
भीग कर लिया
शावर का आनंद याद आया
आंगन में खड़ा नीम
मुझे हसरत से देख ये कहता है
जल्दी जल्दी आया करो
हम बुजुर्गो को अच्छा लगता है
मैं दीदी भैया सब दूर बस गए हैं
आंगन में ढेरों यादें छोड़ गए हैं
मां पिताजी को अब यादों का सहारा है
मां का आंगन अब भी वैसा ही न्यारा है।।