लेखनी पर मेरी अब कोई अंकुश न
लेखनी पर मेरी अब कोई अंकुश न
न परछाई छूट जाये मेरी
न नाम भी गुम हो जाए कहीं
यादों को हौंसलों में लपेटे
खुद को समेट कर
चला गया मैं वहाँ से,
चला गया जहां
सवाल ही जवाब था
मेरे जाने का
और सवाल ही सवाल था मेरे
आने का भी
हिम्मत फिर से जुटाई मैंने
कलम फिर से उठाई
सवालों के कटघरे से उपर
सवाल मैंने भी किए ,
न कलम लडखडाई मेरी
न उम्मीद ने दामन छोडा
आवाज़ भी उठी वंहा से
हाथ भी बढे संबल में
फिर सोचा मैंने -
"देर है पर अंधेर नहीं '
रूकूंगा नहीं ,झुकूंगा नहीं
लेखनी पर मेरी
अब कोई अंकुश नहीं
और मैं चल पडा रोशनी की
ओर फिर उसी तलाश में
खुद से आंख मिलाने के लिए
तुम्हारे यक्ष प्रश्नों के जवाब में
मैं चला गया फिर से आने के लिए।