,'गर आज ये किताबें न होती
,'गर आज ये किताबें न होती
वो 'चाय पर चर्चा' और 'आय पर खर्चा '
बुजुर्गों की महफिल का वो किस्सा न होते
'परियों की कहानी' और 'चांद की सैर' की कोई तस्वीर जेहन में न उतरती ,'गर आज ये किताबें न होतीं ।
ये 'फेस बुक' भी शायद 'फेस लुक' ही होता और 'बुक ' का सिद्धान्त खुद की ही खोज में मशरूफ होता ,सोशल मीडिया एक पहेली बन ,जिन्दगी को और उलझाये रखता 'गर ,रैफ्रन्स को आज ये किताबें न होती।
'मन की बात' जन की आस' न होतीं
श्रेष्ठ का श्रेय लेने को उम्मीद से रोशन ये आंखें न होतीं ,ये रेडियों ,टीवी को न बनाया -जाना जाता,'आकशवाणी' के अचम्भे से दुनिया भी स्तब्ध सी सूचीबद्ध होती,'गर आज ये किताबें न होतीं ।
न इतिहास खंगा
ला जाता न वर्तमान
तौला जाता,न भविष्य को संजोने की
कोशिशें आजमायी जाती,पर हर कदम
अटकलें ही हमें अटकाऐ रखती,'गर आज ये किताबें न होतीं ।
गीता, कुरान, ग्रन्थ, बाइबल भी न हम पढ पाते ,न ही राम , रहीम ,गुरू ,ईशु
हम सुन -सुना पाते
तपस्वियों की आराधना और साधना की साक्षी न बनती ,'गर 'आज ये किताबें न होती।
मूक बन दुनिया फिर से अपने आप में ही सिमटी होती ,भूत ,वर्त मान और
भविष्य की 'बातें ' ही हमारी कवायदें होतीं,
कल ,आज और कल के पन्नों का विश्लेषण
वक्त की स्याही से वक्त की 'रेत ' पर लिखा होता,'गर आज ये किताबें न होती।