लड़की...
लड़की...
लड़की...
सुनो.... ज़रा कम बोला करो....
-क्यूँ.... क्यूंकि तुम इक लड़की हो।
लोग क्या सोचेंगे कितना बोलती है ये..
अरे... समझ नहीं आता तुम ज़रा कम हँसा करो...
-क्यूँ... क्यूंकि तुम इक लड़की हो ।।
तुम्हारा हँसना लोग गलत समझेंगे..
क्या... तुम पागल हो पढ़ाई करनी है...
नहीं नहीं तुम पढ़ नहीं सकती...
- क्यूँ... कितनी बार समझाऊँ की तुम इक लड़की हो..
ज़्यादा पढ़ लिख कर करना ही क्या है लोग
आज इक लड़की चुप थी पर,
अंदर उसके इक आवाज़ बाक़ी थी..
वो पढ़ नहीं सकती, हँस-बोल नहीं सकती,
क्या इन सबकी वजह इक लड़की होना काफी थी...
वो लड़की खुद के अंदर की आवाज़ को दबाने लगी,
"चुप रहो यहाँ खुद की नहीं समाज वालों की सोच चलती है"
ये बताने लगी।
अब उस लड़की के अंदर की आवाज़ और ज़्यादा शोर मचाने लगी...
"कब तक चुप बैठोगी, कब तक मुझे तुम चुप कराओगी,
ये समाज की बात मानी तो खुद से ही हार जाओगी ।।"
फिर एक स्याह रात हुई जब इक लड़की ज़ार ज़ार हुई थी,
मदद को चिल्लाई वो,
हर सिम्त उसकी चीख़-ओ-पुकार हुई थी.....
उसके अंदर की आवाज़ आज बाहर आना चाहती थी,
हर किसी को अपनी आपबीती सुनाना चाहती थी....।
पर उसकी आवाज़ को
इस समाज के ठेकेदारों ने दबाना चाहा था,
"जो हुआ उसमें ग़लती तुम्हारी थी"
ये कहकर उसको चुप कराना चाहा था...
पर आज उस लड़की ने सोच लिया था के
मैं अपने अंदर की आवाज़ को नहीं दबाऊँगी,
चाहे जो हो जाये में किसी और पर निर्भर ना होकर
खुद को ही इन्साफ दिलाऊंगी.....