लालच
लालच
लालच की कथा
अजब सी प्रथा
लाल का लचकना
बेबात ही मचकना
अंजान सा भय
लबालब है मय
ल ल लाल
गया वो बाल
ऊंगली थामे चलना
खाली हुआ पालना
चाहत हुई बेमानी
अपनों से ही आनाकानी
बेईमानी हुई भारी
खोद डाली रिश्तों की क्यारी
अनायास लालच का वजन बढ़ा
नाजुक डोर को तोड़ते चढ़ा
आखिर "हरपाल" डोर हुई कमज़ोर
मन में बैठा गजब सा चोर।