क्यूँ कहीं नहीं मिलती
क्यूँ कहीं नहीं मिलती
अजब वीरानगी है मरघट सी ,
जिन्दगी , क्यूँ कहीं नहीं मिलती ।
गूँजती थी जो एक ज़माने में ,
ऐ हँसी , क्यूँ कहीं नहीं मिलती ।
हर एक शख़्श परेशां सा है ,
सबके चेहरे पे बदहवासी है ।
झलकती थी हर एक चेहरे पे ,
ऐ ख़ुशी , क्यूँ कहीं नहीं मिलती ।
दौर आया है जाने ये कैसा ,
इक अजब दुश्मनी का आलम है ।
मिटा दे जो हर एक शिकवे को ,
दोस्ती , क्यूँ कहीं नहीं मिलती ।
