क्यों नहीं, आईना तोड़ू मैं !
क्यों नहीं, आईना तोड़ू मैं !
मेरी शक्ल मुझे अपनी नहीं लगती,
क्यों नहीं, आईना तोड़ू मैं।
गुज़रे ज़माने, भूले रिश्तो से,
क्यों नहीं, नाता तोड़ू मैं।
जब भी देखू, मैं अक्स खुद का,
बद-तजुर्बों की शिकन दिखती है।
ये तलाशती आंखें मेरी,
इनकी भी थकन बढ़ती है।
रोकते -थामते खुदको,
किस्सो को, समेटता लगूँ मैं।
ये आदत मुझे अपनी, लगती नहीं,
क्यों नहीं, ये आईना तोड़ू मैं।
जब से तेरी तस्वीर,
दीवारों से हटाई मैंने।
बाशक़्ल हो गयी हैं,
सभी यादें तेरी।
भूली बिसरी, सभी बातों को,
ढूंढ़ता फिरू मैं।
ये बातें, जो सकूं कभी देती नहीं,
क्यों नहीं, ये आईना तोड़ू मैं।
गुज़रे ज़माने, भूले रिश्तों से,
क्यों नहीं नाता तोड़ू मैं।
