क्यों लिखता हूँ मैं
क्यों लिखता हूँ मैं
सवाल था उसका " कि क्यों लिखता हूँ मैं "
जवाब न दे सका तो फिर लिखने चला आया।
मुश्किल है हर रंग को ज़ुबाँ से बता पाना,
कोरे कागज़ को रंगना ही बस समझ आया।
बेबसी में ज़ुबाँ भी लड़खड़ाया करती है,
कलम कँपकँपाते भी लिख जाया करती है,
चल देती है शर्मो हया का दामन छोड़ कर,
कहानियों को प्यारा सा रुख़ दे जाया करती है।
जिन ग़मों को पालते हैं हम इस दिल में,
स्याही उन्हें भी दर्ज कर जाया करती है,
रुक्सत हो जाया करते हैं ज़िन्दगी के हर इक पल ,
कागज़ में तस्वीरें दफ़न रह जाया करती हैै।।
