क्या कमी रह गई थी
क्या कमी रह गई थी
जब कभी तुम्हारे सांसों का कलरव
गुजरता है मेरे जिस्म को छू कर
ऐसा लगता है समाया है जैसे सारा ब्रह्माण्ड
मेरे एहसासों की ऊंघती सलवटों में
नयन जो बंद थे सिर्फ़ तुम्हारे ही ख्यालों में
देखते हैं आसमान में तैरते बादलों के झुरमुट को
जब कभी तुम्हारे कदमों की मध्यम आहट से
मेरे सपने जाग उठते हैं गहरी निद्रा से
सहम जाती हूँ ख़ुद में सिमट कर कुछ पल के लिए
सोचती हूँ कौन आया होगा रात्रि के इस पहर
खुली हैं दिल की खिड़कियाँ सिर्फ़ तुम्हारे लिए
मर्जी तुम्हारी चले आओ कोई भी पहर
वो प्रेम भी क्या प्रेम हुआ
बेड़ियों में क़ैद हो जिसकी सरहदें
सच कहती हूँ तुम आजाद हो मेरे प्रेम के बंधन से
भावनाओं के समंदर की गहराई में
भावुक होना मेरी आदत में शुमार नहीं है
तुम चाहो तो भावुक होकर बह सकते हो
जिस दिशा में तुम्हारा दिल चाहे
मगर पहले इतना तो बताना होगा
क्या कमी रह गई थी मेरे प्यार में ज़ालिम
सोचती हूं फिर जब कभी हो मुलाकात
न तुम मुझे जानो न मैं तुमको जानूं
बस इक बार पलटकर देख लूंगी
तुम्हारे कदमों पर अपने कदमों के निशान।