कविताएँ
कविताएँ
चाय के साथ,
अखबार चट कर जाने वाले लोग,
प्याली में थोड़ी सी चाय की तरह,
छोड़ देती हैं,
ये कविताएँ !
नज़र का चश्मा चढ़ा कर, चिढ़ातीं
फिर भी ,अनपढ़ ही रह जाती हैं,
ज्यादा पढ़ी-लिखी सी,
ये कविताएँ !
स्वयं का अस्तित्व,
साबित करने की ललक लिए,
कलम घिसवातीं, पारखी तलाशतीं,
ये कविताएँ !
भूले पथिक सी भटकतीं
इस हाथ से उस हाथ, खुद को प्रकाशित
करवाने की होड़ में, निरर्थक बन जातीं,
ये कविताएँ !
ऊंघते श्रोता की तालियों
की उम्मीद पर खरी उतरें, तो भई, वाह !
नहीं तो मूर्खता की उपाधि लिये लौट आतीं,
ये कविताएँ !
तो कभी ऊर्जा जुटाते-जुटाते,
बूढ़ी ही जातीं और गुमनामी की रद्दी में,
घुट घुट कर, दम तोड़ देतीं
ये कविताएँ !
नेपथ्य में बैठे कवि को,
विवश पिता की तरह,
रुला जातीं, विदा होती बेटियों जैसी,
ये कविताएँ !
