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Sandhya Bakshi

Drama

5.0  

Sandhya Bakshi

Drama

कविताएँ

कविताएँ

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चाय के साथ,

अखबार चट कर जाने वाले लोग,

प्याली में थोड़ी सी चाय की तरह,

छोड़ देती हैं,

ये कविताएँ !


नज़र का चश्मा चढ़ा कर, चिढ़ातीं

फिर भी ,अनपढ़ ही रह जाती हैं,

ज्यादा पढ़ी-लिखी सी,

ये कविताएँ !


स्वयं का अस्तित्व,

साबित करने की ललक लिए,

कलम घिसवातीं, पारखी तलाशतीं,

ये कविताएँ !


भूले पथिक सी भटकतीं

इस हाथ से उस हाथ, खुद को प्रकाशित

करवाने की होड़ में, निरर्थक बन जातीं,

ये कविताएँ !


ऊंघते श्रोता की तालियों

की उम्मीद पर खरी उतरें, तो भई, वाह !

नहीं तो मूर्खता की उपाधि लिये लौट आतीं,

ये कविताएँ !


तो कभी ऊर्जा जुटाते-जुटाते,

बूढ़ी ही जातीं और गुमनामी की रद्दी में,

घुट घुट कर, दम तोड़ देतीं

ये कविताएँ !


नेपथ्य में बैठे कवि को,

विवश पिता की तरह,

रुला जातीं, विदा होती बेटियों जैसी,

ये कविताएँ !


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