कविता
कविता
मधुर ध्वनि में लोटती
हुई ये नाज़ुक कविता
संजो के रखती अपार भाव
प्यार और निश्छलता से भरी
नहीं बदलता उसका स्वाभाव
निरंतर नवीन विचारों से पली
कभी मुस्कुराती , कभी रोती
पर दर्द होता जब वो
सोच में पड़ जाती है
अनगिनत प्रहार उसने सहे
कितने लहू के घूँट पिए
पर उसकी नन्ही आँखें
मूंदते हुए चाँद से
बातें करने लगती है
इसके बदलते हाव-भाव
से अपरिचित हूँ मैं
कभी शांत,कभी ज्वाला
कभी निर्मल बहती हवा
ये कोमलता में लिपटी हुई
टूटे दिल को जोड़ती हुई
इसकी चाल है मतवाली
पिला दे रूठे को
प्यार की मीठी प्याली
हर रूप में मोहित करती सबको
सुन्दर चंचल बचपन हो
या यौवन का जागरण और जोश
यादों से सजाए बुढ़ापे की सांस
हर आवाज़ की तुम बनती आस
बस चलते रहना रुकना नहीं
मैं हूँ तुम्हारा सच्चा साथी
साथ कभी ये छूटेगा नहीं
ये है कलम का अटल दावा
तुम्हीं हो मेरी धड़कन
न कोई छलावा!
