क्वारंटाइन
क्वारंटाइन
आ गया कैसा जमाना ?
घर ही बना है कैदखाना !
अपने सभी -
वैयक्तिक व पारिवारिक,
सामाजिक व व्यवसायिक,
दायित्वों-कर्तव्यों को,
कुछ ही दिनों तक
बस यहीं से है निभाना!
जब से क्वारंटाइन हुए हैं,
घर के छोटे से कमरे में
छत की ओर गड़ाए नजरें,
होकर बदहवास से,
जाने क्या सोचा करते हैं !
छत के कोने में चिपकी जो-
भूरी-मोटी एक छिपकली
टुकुर-टुकुर कर है वो घूरती,
दृष्टि का एक कोण बनाए,
आंखें फाड़े, विद्रूपित वह
रह-रहकर मुँह है खोलती,
जैसे मुझसे कुछ हो बोलती
मानो अफसोस प्रकट करती हो !
या उपहास सर्वथा करती,
मेरी इस बेचारगी पर
दृष्टिकोण कोई हो बनाती,
देख-देख लाचार दशा
कैसी है ये घोर व्यथा !
प्रवचन किसी साधुजन के,
आज सुबह ही पड़े कान में -
'यह संसार तो कारागृह है
जिससे हमें मुक्त होना है '
सुन मन ने यह ढाढस बाँधा,
ये लघु कमरा तो केवल,
संसार की लघु इकाई है
अभी तो बस अँगड़ाई है,
आगे और लड़ाई है !