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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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कुहरा कुहरा शाम

कुहरा कुहरा शाम

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कुहरा कुहरा शाम धुआँ सी सुबहें लगती हैं

सूरज का आना सुन सुनकर रातें हंसती हैं

खामोशी से देख रहे हैं माझी की रंगरलियां


गए आंगन तक बिखर चुकी हैं

अंगारों की डलियां

फौलादी पांवों ने रौंदा धरती की हरियाली

उन बांगो का हश्र यही है बंधा हो जिनका माली

खामोशी से ढूंढ रहे हैं वो आवाज पुरानी


हमको जगत गुरु कहते थे हम थे गुरु की वाणी

कतरा कतरा ज्ञान नदी सी भूलें लगती हैं

सूरज का आना सुनसुनकर रातें हंसती हैं।


स्वर्णयुगों के महके छण को भुला चके है

हम पृथ्वी के प्रथम नागरिक जिममेदारी भुला चुके हैं

जिन लम्हों को दफन कर दिया हम उनका सन्देश पढ़ रहे

जो तेरे पद चिन्ह ढूंढते हम उनकी पहचान कर रहे


जग जीवन की अभिलाषा में जाने कितना जहर पिया है

नवयुग की अभिशप्त हवा ने जाने क्या क्या नाम दिया है

बिखरा बिखरा प्यार डगर पहचानी लगती है

सूरज का आना सुन सुनकर रातें हंसती हैं।


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