कुछ रिश्तों की कोई मंजिल नहीं होती
कुछ रिश्तों की कोई मंजिल नहीं होती
कहने को तो
यह रिश्ता है
मेरा सबसे अजीज
मेरे सबसे करीब लेकिन
कोई दूसरा जब माने
तभी न
कोई अपना ही जब
अपनों की गर्दन काटे और
परायों को अपना बनाये तो
कोई क्या करे
ऐसा लगता था कि
उम्र बढ़ेगी तो
सब ठीक हो जायेगा
जीने का ढंग आयेगा
रिश्तों में सुधार होगा
व्यवहार जो समय के साथ सुधर
जायेगा लेकिन
ऐसा सोचना फिजूल था
दीवार में जो एक दरार आई थी
वह तो कहीं से भरी नहीं बल्कि
एक के बाद
इतनी दरारें उभरी और
उभरती ही जा रही हैं कि
पहले कमरे को फिर
शायद घर को गिराने जा
रही हैं
इसके मलबे के नीचे
दब भी जाये कोई तो
किसी को कोई फिक्र नहीं
शुक्र यह मनाया जायेगा कि
रिश्ता हमेशा के लिए
कितना लंबा समय लगा
वर्षों का कि
अब कहीं जाकर टूटा
अपना परिवार ही
आजकल सर्वोपरि है
लेकिन तब क्या होगा जब
इतिहास
जो कहानियां इन्होंने लिखी
वही सब दोबारा
तिबारा या
बार बार
इन सबके साथ दोहरायेगा
हर किसी को लगता है कि
उसने अपना घर सजाया
लेकिन दूसरों के दिलों के
कितने दर्पण इसके लिए तोड़े
यह भूल जाता है
रिश्ता यह जो होना चाहिए था
एक महकते फूलों की बहारों सा
एक कांटो से भरे दलदल में
धकेलता है
जितना बाहर निकलना चाहो
उतना ही कोई आदमी इसमें
फंसता है
कुछ सवालों का कोई जवाब नहीं
होता
कुछ समस्याओं का कभी कोई हल नहीं
होता
कुछ रिश्तों को उम्र भर
एक छत के नीचे तो रहना
होता है
एक ही रास्ते पर दो किनारों की तरह
साथ तो चलना होता है लेकिन
उन्हें न उसमें रहकर कोई खुशी
मिलती
न ही जो मंजिल मिले
उस पर फूलों का ही कोई
डेरा होता है।