कुछ नहीं
कुछ नहीं
वक्त के साथ
चलते चलते
मंजिल मिल जाती है
यदि फासला मालूम हो
कितनी दूरी, कितना वक्त
कैसा ठहराव, कैसा बदलाव
जब रास्ता ही मंजिल हो
जब साधन ही साध्य हो
जब दूरी ही नगण्य हो
ज्ञान का अभाव
प्रेरित करता
चलते रहने को
कोल्हू के बैल की तरह
चलते रहते दिन रात
ठहराव पर स्व को वहीं पाते
जहाँ से चलने को चले थे
ठहराव की समझ ही आत्मज्ञान है
आत्मज्ञान होने में
किसी को पलभर लगता है
किसी को कई पहर लगता है
किसी को जन्मों जन्म लगता है
आखिर में ज्ञात होता है
हम कुछ नही हैं
"कुछ नहीं" होना,
कुछ भी होने की संभावना है
रिक्त शून्य बन जाना है
अनंत शून्य का पूरक हिस्सा होना है
जब दूरी नहीं तो सफर कैसा
स्वयं से स्व के मिलन में प्रतिरोध कैसा
यह सब काया की माया
!!कुछ नहीं!! का ज्ञान
आत्मज्ञान का आधार ।
