कुछ ख़त पुराने से
कुछ ख़त पुराने से
शाम के साये बड़े से होते और स्याह में ढलते,
हसरतों पे पहरा लगा रोज़ जीते रोज़ मरते,
यूँ गुज़रती जाती है ज़िन्दगी की हर शाम,
ज्यों किश्तों में बटी हो ये उम्र तमाम !
मौसम भी गुमसुम-सा, मैं भी कुछ अनमना,
जाने क्यों याद आया ख़त का वो आख़िरी पन्ना,
कदम अनजाने ही अलमारी की ओर उठे,
पुराने ख़तों का पुलिंदा फ़िर खींच लाया मुझे !
बिखरा पड़ा था मेरे अरमानों का बेरंग खून,
जिनमें तलाशा था कभी मैंने अपने दिल का सुकून,
वो मोहब्बत से भरे शिकवों का लहज़ा,
वो तेरी छोटी-छोटी ख्वाहिशों का करना बयां !
वो ग़ालिब की नज़्म जो तूने लिखे उसमें,
जिनसे आज भी आती है खुशबू-ए-हिना,
कैसे भूलूँ, तू बता तेरा वो पुरनूर चेहरा,
आज तलक ढूँढता फिरता हूँ जिसे सहरा-सहरा !
तेरी यादों की ज़मीं तले दफ़न हो चुका हूँ,
नब्ज़ बाकी है मगर कब का मर चुका हूँ !

