बेबसी
बेबसी
पास बैठे उस खिड़की के मैं यूँ बाहर झांकता हूँ,
उड़ते उन पंछियों को आसमां में ताकता हूँ।
चहचहाती हुई उन आवाज़ों को यूँ ही सुनता हूँ,
बस, उड़ते उन पंछियों को आसमां में ताकता हूँ।।
दिन गुज़र रहे इस खिड़की के पास,
हवाओं ने भी छोड़ दिया देना अब आस।
सर्द हो गई हैं वो आहट भी जो कुछ कह जाती थीं ,
घुटते हुए धीमी हो रही अब साँस।।
ना जाने कब आज़ादी मिलेगी अंत में,
बस यही सवाल उठता अब मन में,
उड़ने को भी उन पंछियों की तरह जी करता,
उम्मीद की लौ भी अब बुझने को पास में।।