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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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कुछ और नहीं होता है

कुछ और नहीं होता है

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कुछ और नहीं होता है

जब तुम होते हो

और तुम्हारे होने की अनुभूति होती है

सब कुछ घुलने लगता है

तुममें

मसलन हमारा लोकतंत्र

हमारा ब्यवहार

हमारा स्वभाव

और हम मुग्ध हो यंत्रवत

देखते रहते हैं

सब कुछ तुममें घुलते हुये

और ऐसे में जब भी

अपने होने का एहसास होता है

कुछ सक्रिय होने का मन होता है

मुग्धता में ही

तो हमारा हर शब्द

आग सा लगता है

और हर क्रिया विद्रोह सी लगती है

और तुम तटस्थ खड़े खड़े

मुस्कराते हुये

मुझसे अपना रिश्ता बताते हो

और ये भी कहते हो

मैं तुम्हारे लिये कुछ नहीं कर सकता

और मैं सक्रिय हो उठता हूँ

अपने लिये

और देखता रहता हूँ तुम्हारा ही चेहरा

बदलता हुआ

और सोचता रह जाता हूँ

तुम्हारे इतिहास में खोये हुये लोग

तुम्हे कैसे पहचान सकेंगे

ऐसे तो तुम कभी नहीं थे।


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