कुछ अजीब सा
कुछ अजीब सा
कितनी अजीब कुछ बेहद सुंदर था
घना अंधेरा में एक लौ सा था
या कहूं एक धोखा सा था
बंद आखों में चमकता था
आखें खोलते ही
मुझ में समा जाता था।
मैं डरती थी
किसी को पाकर खोने से
मैं डरती थी
बेहद अपना और अपनापन से सीधा
अनजाना सा पराया होने से।
आखें नहीं खोलती थी
वो मुझे मजबुर करता था
मेरे खाली पन को
उकसाया करता था
मुझे जिंदगी भर रौशनी देने की
वादा करता था।
मैं आखें खोल दी
हिम्मत की कुंडी खोल दी
दरवाजा अब खुला है
और वो रोशनी अब मेहमान है
अंधेरा कितना प्यारा होता है
ये मनचाहे आते जाते रोशनी ने
मुझे बहत अच्छे से बतलाया था।
