कुछ ऐसा कर सकती
कुछ ऐसा कर सकती
काश मैं अपनी लिखावट से कुछ ऐसा कर सकती,
दुनिया की वो भयावह तस्वीर बदल सकती।
पग-पग में डर बसता है, कदम जब मैं बढ़ाती हूँ,
रहती हूँ मैं सहमी सी, घर से जब निकलती हूँ।
हैवानियत भरी नजरों से, वो आँख है जब घूरती,
भीड़ में भी मैं खुद को, अकेला ही हूँ पाती।
आत्मा कांप जाये मेरी, पीछा करे जब कोई,
आवाज दूं मैं किसको, किसी को मतलब नहीं।
मैं बेटी, बहन नहीं उनकी, जो सड़क पर चल रहे,
मैं कुछ लगती नहीं उनकी, जो ये मंजर देख रहे।
हवस का वो दानव, नोंच न ले मुझको,
खिलौना हूँ जैसे कोई मैं, सोचता है वो तो।
नियम, लिहाज और मर्यादा
, सब सिखलाया मुझको,
सीमा में वो रहे, ये न बतलाया किन्तु उसको।
छोटे कपड़े और गलत समय, का दोष मेरा होता,
छः महीने की नवजात बच्ची से भी फिर ये दानव क्यों खेलता।
हाथों में मोंमबत्तियां लेते, बाद में क्यों आवाज उठाई,
उस वक्त कहां गया ज़मीर, जब सहायता करने की बारी आई।
घर, विद्यालय या दफ्तर हो,आगे तो मैं बढ़ गई,
खोट हो लेकिन जिस नज़र में, उस गन्दी नीयत से न लड़ पाई।
दोष है ये किसका, जब कोई न साथ देता,
मरोड़ दे जो मुझको, उस दानव को बढ़ावा देता।
समाज बदलूं, दुनिया बदलूं,मैं मानसिकता बदल सकती,
काश अपनी लिखावट से, मैं कुछ ऐसा कर सकती।