कठपुतली बनाम नारी
कठपुतली बनाम नारी
कठपुतली सा जीवन मेरा डोर पराए हाथों में
जिधर चाहे मोड़े रुख मेरा छोर पराए हाथों में।
आगे पिछे डोर बंधी जितना छुड़ाऊॅं और कसी
मनचाहे जब खा नही पाऊॅं कोर पराए हाथों में
चीखना चिल्लाना हाथ उठाना हाँ बस यही सहना है
बहरी भी हो नही पाऊॅं क्यों कि शोर पराए हाथों में
सजा धजा कर पेश है करता दुनियाँ के रंगमंच पर
मैं अबला कुछ कर नही पाती जोर पराए हाथों में
अंधेरो में जीना होता है जहर गमों का पीना होता है
उजालों से दुर तक वास्ता नही है भोर पराए हाथों मे
