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Chandresh Kumar Chhatlani

Inspirational

4  

Chandresh Kumar Chhatlani

Inspirational

क्षणिकाएं

क्षणिकाएं

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(1)

मैं चलता जा रहा था रेत पे बेख्याली में

और समझ रहा था खामोश समन्दर को बेजुबां।

मैं किनारे पे शंखों के हर्फों को सुनता रहा

पीछे लहरें मिटा रहीं थी, मेरे कदमों के निशाँ।


(2)

मैं सच की जुस्तजू में था

खोज रहा था मन के अन्दर ....

सौभाग्य था पाया माँ के कदमों में

अनुराग था पाया बेटी के शब्दों में

दुआ जो दो रोटी खा कर दी थी

वो भी था कोई मस्त कलंदर।

क्या खोज रहा था मन के अन्दर।


(3)

जला के दीपक हर दिशा को भर दिया

रोशनी से घर की अपने।बन के सूरज अब क्यों ना रोशन करूँ

किसी की शिक्षा के सपने।हर दिवाली उड़ा देता हूँ धुंए में

 कितने ही दुआओं के फूल,

क्यों ना बटोर लूं आज उनको

 मेरा आँगन भी लगे महकने।

(4)

चाहते हैं लोग जो ज़िंदगी अपनी ख़्वाबों में जीना,

वक्त कभी उन्हें भी सिखाये कैसे बहाते हैं पसीना।

ये साज़ की झंकार नहीं टूटते तारों की आवाज़ है,

सरस्वती के हाथों से फिसल के गिर रही है वीणा। 


(5)

समझते थे फिर भी छोड़ दिया सांस लेना

गुम हुए इस तरह जैसे गुज़रा वक्त है ना।

अपने किनारे तलाश लिए वो तैराक थे बड़े,

कह गए किसी कश्ती को भी आवाज़ ना देना।


(6)

मैं सोच रहा था घरौंदा शीशे का बनाऊं

वो दोस्त मेरा पत्थर बटोर रहा था।

मैं बरसों सम्भहालता रहा शीशों के टुकडे

वो हर रोज़ पूरी शिद्दत से तोड रहा था।


(7)

कितना आसान था खुद को छु

पा लेना

अपने घर के आइनों में।

पल भर में उड़ जाते थे चेहरे के दाग

 मुमकिन न था महीनों में।


(8)

कभी सपनों का रहस्य ना जान पाया,

ना ही चाप समय की पहचान पाया।

मैं कर्मशील रहा कृष्ण की राह समझी,

मेरे दुःख हरने धरा पर भगवान आया।


(9)

जब अपनी ही पहचान समझने निकले हम खुदा की राह में

ये जाना कौन हूँ, मिट्टी का पुलिंदा हूँ लेकिन उसकी पनाह में


(10)

वो शख्स तोड़ गया दरवाज़े को मेरे, जो चौखट पे सर झुकाता था

क्यों दुनिया ऐहसान ना चुकाने के लिए आदतें बदल देती हैं।

देहरी पे सुकून की बैठ के उन हवाओं पे यकीन अब कैसे करें

किसी का सुकून छीनने को जो ज़मीन से रिश्ते बदल देती हैं।


(11)

हमेशा गुमान में रहता था, ना चाहिए थी कोई रहमत

ना शर्मिन्दा था किसी गलती पे ना की थी कभी इबादत।

लेकिन उस दिन बहुत रोया अहसास हुआ गलती का

जब रोज़ डांटने वाली माँ गुमसुम सी चुप बैठी थी।


(12)

उसके वजूद को हर्फों से तोलें इसमे रखा क्या है

कुछ कहने से पहले बस ये सोच कि तू क्या है?


(13)

बरसती हैं रहमतें, दुआ मांग के तो देखो

यूं युगों को दोष देना काफिर का काम है।

हर युग पाकीज़ा दरबार का अंश होता है

हर ज़र्रे पे खुदा हुआ खुदा का ही नाम है।


(14)

छोटी सी इस ज़िन्दगी में

बहुत से अपने पराये हो जाते हैं

लेकिन छोड़ के दुनिया को

वो फिर क्यों हमसाये हो जाते हैं।


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