कसक इक रात की
कसक इक रात की
रात जाती जागती सी
सुबह आलस से भरी सी
बात गहरी कब है ठहरी
रात के संग गुज़रती सी
भीड़ घेरे है किसी को
फिर भी तन्हा ज़िन्दगी सी
पास होती हर खुशी जब
एक भटकन अज़नबी सी
ख़ामख़ा के ख़ाब पलते
दिल में ऐसी कोठरी सी
प्यार का इक लफ्ज़ आधा
नामुक़मली लाज़मी सी
खंडहर ये शह्र वीरां
कौन मुद्दई बेबसी सी
दिन सुनहरी आस जागे
शाम तक जो डूबती सी
एक जुगनू ख़्वाहिशों का
बिन चरागां रोशनी सी।