कर्तव्य अभी अधूरा था
कर्तव्य अभी अधूरा था


कहा तो था तुमने
कि मेरा कर्त्तव्य समाप्त हुआ तुम पर
आत्मनिर्भर बनो
बन तो गया था मैं !
किन्तु इतना सक्षम तो नहीं हो गया था पापा !
कि सह पाता तुम्हारे कन्धों का बोझ भी !
याद नहीं तुम्हें
भूल गए हो शायद तुम
कि पूर्ण नहीं हुआ था तुम्हारे कर्तव्यों का पथ
कि कईं काम करने थे तुम्हें
पुत्र-वधु को
आशीर्वाद भी तो देना था
सुननी थी किलकारियां..आँगन में फूलों की
सिंहासन पर बैठे हुए
मुझे देखकर पापा
खुश भी तो होना था तुमको
किताबें पढ़ ली
विद्वान हो गए तुम
भूल गए संसार असंसार का भेद
छोड़ दिया दुनिया को
साधुव्रत ले लिया
मौन हो गए तुम !
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क्या इसीलिए आत्मनिर्भर बनाया था मुझे ?
इसीलिए भेज दिया थाघर से दूर..बहुत दूर !
जाना ही था तुम्हें
तो चले जाते तुम
किन्तु थोड़ा इंतज़ार..थोड़ा सा बस.
थोड़ा धैर्य तो किया होता !
तुम्हारा हर आदेश माना था मैंने माना तो था ?
पर ये आदेश तो कभी भी दिया नहीं तुमने पापा
कि संभाल लो जिम्मेदारियां मेरी भी अब!
उठा लो कन्धों का बोझ मेरे भी तुम बेटा!
बताओ तो सही कि कब दिया था ये आदेश हमें ?
क्या था ये मौन आदेश तुम्हारा ?
क्यों दे दिया वो मौन आदेश..?
समेट तो लूँगा
बिखर गयी माला को मैं..
वादा है मेरा
किन्तु बेरुखी तुम्हारी
तमाम उम्र सताती रहेगी मुझे
तमाम उम्र !