कृतज्ञता...
कृतज्ञता...
सब कुछ बयां किया है उसने,
देता जाऊं और मुस्काऊ।
जग में झुका जहां जो जितना,
उसने उतना है फल पाया।
नभ के बादल ने कुछ झुककर नदियां सींची,
धरती सींची, मरुधर में जल सींचा है।
झुकता वही है इस जग में,
भरी डालियां जिसकी फल से।
अकड़ और अभिमान निरर्थक,
जीवन झुकने में है सार्थक।
मैं हूं उससे, वह मुझसे है,
और हमसे ये जीवन है सार्थक।
उसने दिया सदा सबको,
कभी न हमसे कुछ मांगा है।
हम सौदा करते है उससे,
खुशियां देकर गम हरने का।
पर क्या इतना हकदार नहीं वो,
निश्चल प्रेम, करुणामय मन का।।

