कर्म और समय
कर्म और समय
"हम सोचते है सोचते रहेंगें यूँ हीं हमेशा
वक्त कहाँ रूकता है सूरज ढल जाने से।
वो वक्त पर डूबता है और वक्त पर ऊगता है
यही फितरत है उसकी इस दुनियाँ में रहकर
कोई कुछ कहता है तो कहनें से कुछ नहीं होता
सूरज को ढलना है तो ऊगना भी है हर रोज
कश्तियाँ चलती है किनारा पानें को हर बार
किश्मत् अपनी है किसी को किनारा न मिले
मेरा तो ये मानना रहा कुछ इस दुनियाँ में यारों
जिंदगीं धार पे डाल दो हसरतें रहनें दो अब
बहने दो जिंदगी को धार और मझधार में
मिलेगा कहीं न कहीं किनारा जरूर ये तय है
या समन्दर तो अंतिम छोर है हर "धार" का।