कोरोना से जलता शहर
कोरोना से जलता शहर
अल्फ़ाज़ नहीं जो ..भर जाए जख्म.....
फिर भी बयां कर रही है यह हर लफ्ज़ नज़्म....
पहरों पहर घड़ी घड़ी ..जो जला यह शहर.......
जाने कहाँ से आया ..यह कोरोना का कहर......
वक्त के साथ बदले ...ताल्लुकात कितने.......
दूर हुए सब जो रिश्ते थे सिमटे धागों जितने......
इस धधक से जो.. बाहर धुआँ उठा.......
किंतु घर के अंदर अपनों का.. जलता दीया चहक उठा.....
इजतिरार एतबार मौसमों को कहाँ होता है शहर में....
कौन जानता था पड़ जाएंगे ताले मंदिर मस्जिदों में...
अचानक अजान, घंटियां बंद होंगी........
दीदार अल्लाह ईश्वर के दूर से होंगे कोने में......
तनहाई बयां कर रही जो आबोहवा हर तरफ........
कैसे कहे पेशानी का घाव ..चमकता महताब चारों तरफ........
कितने जिस्म -ए-रुह सो गए..जिन पर फूल भी नसीब ना हुए....
कोई सैलानी कोई फकीर ..राजा रंक राख में लिपटे हुए.....
जिंदगी में पूछे ...इस जलते शहर में किसका हाल...
ज़िक्र की फिक्र करें खुदकुशी खुशहाल सबका हाल बेहाल.