कोरोना- प्रकृति और मानव
कोरोना- प्रकृति और मानव
काली रात अँधेरी है या भोर का समय हो गया,
काला धुआँ छँटकर नीला गगन हो गया।
प्रकृति ने रूप बिखेरा,नदियों का जल अमृत हो गया,
मनुष्य का पतन, प्रकृति का नवजन्म हो गया।
पंछियों की चहचाहट है, लहरों की आवाज़ है,
मानव भीतर कैद , पंछी आज आज़ाद है।
कोरोना से जंग है सबकी, कुछ अजब-सी बात है,
अलग होकर भी, आज सभी देश एक साथ है।
कैसी ये हुंकार हुई, सीमा पर अंकुश लगाया है,
जो जहाँ था वही ठहर गया,मजबूरी का आलम छाया है।
नींद उडी है आँखों से, कैसा ये मंज़र आया है,
ये कैसी तबाही है, जिसने हडकंप मचाया है।
बच्चों की किलकारियों से घर-आँगन गूँज गया,
माता-पिता का स्नेह इन्हें अब बरबस ही मिल गया।
सारा काम घर का मिलजुलकर निपट गया,
ये कैसा मंज़र आया, साथ होकर भी सब ठहर-सा गया।
सुनसान पड़ी हैं सब गलियाँ, सुनसान पड़े सब घाट हैं,
सुनसान पड़ी हैं सब सड़कें, फिर भी हाहाकार है।
सुनसान खड़ी हैं कुछ नज़रें, फ़र्ज़ की दीवार है,
सुनसान पड़े हैं कुछ आँगन, उन्हें किसी का इंतज़ार है।
कुछ वीर चक्रव्यूह को भेदने, कुछ इस कदर खड़े,
सबको करके भीतर कैद, खुद जंग के लिए अड़े।
नमन है उन वीरों को, एकजुट मानवता के लिए लड़़े,
जान हथेली पर रखकर, देखो कैसे परवाने बढ़े।
सब सलामत रहें, सब साथ मिलकर चलें,
नियमों का पालन करें, हिम्मत इनकी कुछ इस तरह बनें।
खुद को रखकर घर में कैद, आओ समस्या हल करें,
जीतकर इस जंग को, आओ एक मिसाल बनें।
महामारी का अंत हो, हर जीवन संपन्न हो,
रात घनेरी छँट जाए, सुंदर सवेरे का नवजन्म हो।
मानवता भी पुनः लौटे, प्रकृति का भी श्रृंगार हो,
सुखी, समृद्ध और निरोगी, एक नया संसार हो।