कलम गहो हलधर
कलम गहो हलधर
रच लो जीवन-गीत, कर्म की
कलम गहो हलधर !
सींचो क्यारी, भाव जगेंगे
बीज डाल दो, शब्द उगेंगे
जब आएगी फसल स्वर्ण सी
सारे सुर, लय-ताल बनेंगे।
किलकेगी कविता,
कण-कण से
पस्त न हो हलधर !
देख रहे हल राह तुम्हारी
बदरा बुला रहे जलधारी
घर-संसार सुखों की खातिर
तुम्हें जीतनी है यह पारी।
बहुरेंगे दिन, श्रम के भी !
मत धीर तहो हलधर !
तुम सोए, जग सो जाएगा
जीव प्रलय में खो जाएगा
कर्म-कलम थामोगे जब तुम
नव-इतिहास तुम्हें गाएगा
याद रहे, निर्भर तुम पर
भव-भूख, अहो, हलधर !
