शुभारंभ है नये साल का
शुभारंभ है नये साल का
फिर से नई कोपलें फूटीं
खिला गाँव का बूढ़ा बरगद।
शुभारंभ है नए साल का
सोच-सोच है मन में गदगद।
आज सामने, घर की मलिका
को उसने मुस्काते देखा।
बंद खिड़कियाँ खुलीं अचानक
चुग्गा पाकर पाखी चहका।
खिसियाकर हो गया व्योम से
कोहरा जाने कहाँ नदारद।
खबर सुनी है, फिर अपनों के
उस देहरी पर पैर पड़ेंगे।
नन्ही सी मुस्कानों के भी
कोने कोने बोल घुलेंगे।
स्वागत करने डटे हुए हैं
धूल झाड़कर चौकी मसनद।
लहकेगी तुलसी चौरे पर
चौबारे चौपाल जमेगी।
नरम हाथ की गरम रोटियाँ
बहुरानी सबको परसेगी।
पिघल-पिघल कर बह निकलेगा
दो जोड़ी नयनों से पारद।
बरगद के मन द्वंद्व छिड़ा है
कैसे हल हो यह समीकरण।
रिश्तों का हर नए साल में
हो जाता है बस नवीकरण।
अपने चाहे दुनिया छोड़ें
नहीं छूटता पर ऊँचा पद।