STORYMIRROR

Neena Ghai

Abstract

4  

Neena Ghai

Abstract

कलम और शमशीर

कलम और शमशीर

2 mins
799

शमशीर अभिमान से थी भरी,

कलम को नीचा दिखाने पर थी अड़ी।

हर लिहाज़ से तुझ से हूँ मैं बड़ी,

फिर मेरे सामने तू कैसे है खड़ी।


जानती नहीं राजमहलों की थी मैं शान

बड़े प्यार से थी मैं चमकाई जाती।

जंग पर जाने से पहले

मेरी पूजा अर्चना थी की जाती।

 

फिर मखमली म्यान में थी रखी जाती,

चांदी के थाल में सजा

तिलक लगा थी लाई जाती l

तू क्या जाने, न्याय भी मेरे दम पर

शहंशाह थे कर जाते। 


सिर कलम कर थी देती एक झटके में,

दोषी थे जो पाए जाते।

हिम्मत ही नहीं थी किसी की

जो मेरे सामने आ टिक जाते l


कलम धैर्य और विनम्रता से बोली,

माना तू कद में मुझ से है बड़ी और महान,

पर ताकत में हैं हम दोनों एक समान

तू थी कभी राजाओं की शान

पर मैं आज भी हूँ विद्वानों की आन।


मुझ से लिखा गया शब्द

कोई भी शहंशाह नाकारा था नहीं करता

जो राजा तुझे शान से तुझे थे उठाते

वारिस पैदा होते ही मेरी छोटी सी नोक से

लिखी जन्म कुंडली से वे थे घबराते।


मेरे लिखे से ही तो राजमहलों में मुहर्त निकाल

राज तिलक थे हुआ करते

 तूं किसी के लहू की थी प्यासी,

मैं थोड़ी सी स्याही की हूँ प्यासी।


तू इतिहास थी रचती, मैं तारीख हूँ लिखती   

तू खो गई कहीं उन राजाओं के साथ,

तेरा ज़माना कल था

मेरा कल भी था,

आज भी है और आने वाला कल भी होगा।


शर्मसार हो शमशीर बोली,

कोई नहीं है बड़ा और न है कोई छोटा 

सब कोई है एक समान।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract