किश्तियाँ
किश्तियाँ
गर्मी की छुट्टियों में,
सभी चचेरे व मौसेरे,
भाई-बहन हमारे घर इकट्ठे होते
खूब धमाचौकड़ी मचाते।
पूरी तपती दोपहर,
पुराने अखबारों को
काट काट कर किश्तियाँ बनाते,
छोटी, बड़ी और बड़ी
पूरे अखबार की भी।
चार बजते बजते
हर एक के हाथ में
दस बारह किश्तियाँ।
अब पूरी जुंडली
चल पड़ती नहर की ओर
इन किश्तियों को तैराने के लिए।
नहर के ऊपर एक पुल बना था।
पुल के नीचे से
बहते पानी की
रफ्तार तेज़ करने के लिए
कोई मेकेनिज्म था।
एक तरफ से शान्त सा आता
पानी का बहाव
दूसरी तरफ भंवर का
रूप ले लेता था।
हमारा खेल अब शुरू होता था।
हम सभी
बराबर साइज़ की
एक एक किश्ती,
पुल की शान्त वाली तरफ से छोड़ देते।
किश्तियाँ कुछ देर तैरती,
कई एक डूब जाती,
कुछ दूसरी तरफ जाकर
भंवर में फंस जातीं या
साइड से होकर निकल जातीं।
एक आध भंवर को
धत्ता देकर भी बच निकलती।
जिस किसी की किश्ती बचकर निकल जाती
वह विजेता बनता।
ओवरऑल विजेता वह बनता जिसकी
सबसे अधिक किश्तियाँ
बचकर आगे निकल जाती।
किश्ती के बच निकलने पर
ताली पीटी जाती
डांस किया जाता
दो घंटे कैसे बीत जाते
पता ही नहीं चलता।
नाचते कूदते घर पहुंच जाते।
अब कई बार
एकांत में बैठे-बैठे
सारी घटना
अतीत की झरोखों से निकलकर
सामने प्रकट हो जाती है।
सोचती हूँ
जीवन में भी तो कुछ ऐसा होता है
प्राय: लोग भंवर से पहले ही
कई कारणों से खत्म हो जाते हैं।
कई जीवन रूपी भंवर में
फंसकर तबाह हो जाते हैं।
कई वे भी हैं
जो विपरीत परिस्थितियों व
कठिन से कठिन डगर के
बावजूद आगे निकल जाते हैं।
जो विपरीत परिस्थितियों को
परास्त कर,
आगे निकलते हैं
वही असली विजेता बनते हैं।