किसे देखकर रोने को कहते हो !
किसे देखकर रोने को कहते हो !
किसे देखकर रोने को कहते हो,
उसे जो आज राख़ बनते-बनते भी,
एक गंगा को फिर मैला करने चला
अरे, जब वह हम लोगों सा था,
तो वह आसपास के कई घोंसले,
उजाड़ा करता था
उसको देखते ही कई परिंदे,
अपना ठिकाना बदल लेते थे
लेकिन, हर ठिकाने पर,
उसके चाहने वाले होते थे
जिन्हें देखकर वे परिंदे आसमां से,
बातें करना भूल जाते थे
किसे देखकर रोने को कहते हो
उसके बगल में एक और,
राख बन पड़ा हुआ था
जिसके चाहने वाले ,
फटे- पुराने वस्त्र में थे
और उस राख को देखकर,
किसी की आंखों में आंसू न था
बस उनकी आंखों में,
रोज का एक श्मशान दिख रहा था
औऱ जबरन के आंसू,
निकलवाने के लिए
उस राख़ की पुरानी अनसुनी,
कहानियों को कवरेज देने वाला,
कोई मीडियाकर्मी भी न था
वह अकेले किसी कबीर-सा,
पड़ा हुआ था
निरंकार होकर वह
साकार स्वरूप वालों पर,
निरंतर हंस रहा था
अब, तुम्हीं बताओ इन दोनों में से
किसे देखकर रोने को कहते हो।
