कई हाथ
कई हाथ
बढ़ई ने गढ़ा मुझे बहुत से हाथों के साथ,
लेकिन रह नहीं पाते वे हाथ - खुश
क्योंकि उंगलियों के बीच फंसे हुए हैं उपकरण
फिट हो जाते हैं जो मेरे शरीर में
और दिमाग में भी।
मेरे हर हाथ की नाड़ी का स्पंदन, मंदिर के गर्भगृह से निकलते धुंए की तरह शिखर छू लेता है।
पढ़ भी लेते हैं हाथ घंटों की किताबें मिनटों में,
मोतियों से बने बच्चों के स्वर के समक्ष दुलारते हुए आत्मसमर्पण भी करते हैं।
बजाते हैं ताली भी और फहराते हैं पताका भी।
मजबूत पकड़ बना बन जाते हैं सिपाही।
इतने हाथ हैं कि एक दूसरे से ही मिला लेते हैं हाथ,
कर लेते हैं इच्छा साझा।
फिर भी थकते हैं पैर मेरे - हाथ थकते नहीं।
थके पैरों से बैठ के सामने किसी कम्प्यूटर के ये हाथ दिखा देते हैं स्क्रीन को,
कुछ घड़ियाँ - कुछ नोटपेड और कुछ कूदते हुए आइडियाज़।