ख़ुशी
ख़ुशी
रोज सुबह जब बन ठन कर,
हम घर से बाहर जाते हैं,
चिथड़ों में लिपटे कुछ बूढ़े,
चिंदियों को पहने कुछ बच्चे।
अक्सर हमसे टकराते हैं,
कुलबुला के दिल तब पूछता है,
ये लोग कहाँ से आते हैं ?
ना दिन का पता,
ना रात का डर,
बंधन ना कोई,
ना कोई फ़िकर।
मस्ती की चिलम में ठूस के दिल,
इक ठाठ से फिर सुलगाते हैं,
हमें छप्पन भोग भी कम पड़ते,
वो जूठन का भोग लगाते हैं,
ये लोग कहाँ से आते हैं ?
धूप से इनकी दोस्ती,
बरसातें इनकी यार,
इनके ही लिये करवट लेती,
मदमाती मस्त बहार।
करें बात हवा के झोंको से,
बिजली से दिल बहलाते हैं,
हमको मखमल भी गड़ता है,
वो पत्थर पे सो जाते हैं,
ये लोग कहाँ से आते हैं ?
वो फक्कड़ वो मस्त कलंदर,
दिल दरिया और जान समुन्दर,
लाख मिले दुख उनको वो,
इक हँसी में दफना जाते हैं।
हमें गंगा मैली लगती वो,
खारा पानी पी जाते हैं,
ये लोग कहाँ से आते हैं ?
हम पाँच रुपए में धुआँ उड़ायें,
और बीस रुपए का पान चबाएँ,
देकर अफसर को सौ-पचास,
अपना उल्लू सीधा करवाएँ।
कोई माँग ले थोड़े पैसे तो,
हम चिल्लर उसे टिकाते हैं,
दिल रत्ती भर भी नहीं हम में,
और भिखारी वो कहलाते हैं,
ये लोग कहाँ से आते हैं ?
हम कल की चिंता करते हैं,
वो आज को खुल के जीते हैं,
हम उखड़े-उखड़े रहते हैं,
वो मंद-मंद मुस्काते हैं।
वो कटी पतंग की तरह उड़ें,
हम ठेला-सा लुढ़काते हैं,
हम गोली खा कर भी मरते,
वो दुआ से ही जी जाते हैं,
ये लोग कहाँ से आते हैं ?
