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हमको मखमल भी गड़ता है, वो पत्थर पे सो जाते हैं, ये लोग कहाँ से आते हैं ? हमको मखमल भी गड़ता है, वो पत्थर पे सो जाते हैं, ये लोग कहाँ से आते हैं ?
'कटी-पतंग’ के जैसे, खुद ही उड़ा कटा चला जाता हूँ...! 'कटी-पतंग’ के जैसे, खुद ही उड़ा कटा चला जाता हूँ...!
यूँ ही बैठा, हथेली को ताक रहा था, लकीरें कम तो नहीं, ये आँक रहा था...! यूँ ही बैठा, हथेली को ताक रहा था, लकीरें कम तो नहीं, ये आँक रहा था...!