पतंग
पतंग
ऑफिस में बैठा-बैठा मैं,
अब ‘काम’ की पतंग उड़ाता हूँ,
संयम की 'ढील’ बढ़ाता हूँ,
ईमान की’ खेंच’ लगाता हूँ।
मेहनत का 'मांझा-सद्दी’ ले,
दिल जान से 'पेंच’ लड़ता हूँ,
जो दौड़-दौड़ 'लूटी’ सारी,
वो पतंग दान कर आता हूँ।
हर रोज़ 'काट’ दो-चार,
शाम को शान से घर मैं जाता हूँ,
लेकिन जब देखूं नील-गगन,
'विचलित’ सा मैं रह जाता हूँ।
और 'कटी-पतंग’ के जैसे,
खुद ही उड़ा कटा चला जाता हूँ,
ऑफिस में बैठा-बैठा मैं,
अब 'काम’ की पतंग उड़ाता हूँ।