कहीं दूर
कहीं दूर
निकल जाओ ना कहीं दूर,
जहां तुम जाना चाहती हो,
उस गुमनाम बिंदु पर,
जहाँ तुम खुद को पाती हो ।
वहीं तो तेरा घर है,
उस उम्मीद के पहाड़ के परे, प्रेम सरोवर के पास,
जो किसी कवि की कल्पना पर नहीं,
सत्य की बुनियाद पर बना है।
उस कच्चे घर में ही तो,
तेरे सुख का आँगन है,
आंसू झलके भी तो,
प्रेमी पवन का दामन है।
जब नहीं भाता ये परिवेश,
तो क्यों खुद को मनाना है,
निकल जाओ ना कहीं दूर,
जहाँ तुम्हें जाना है।
अपेक्षाओं का कोई पार नहीं,
ये उपेक्षाओं को संसार है,
आदर्श-ता की प्रतिमा बनो,
अन्य किसी सोच का भी अपकार है।
क्या करो उस कौम का, जो मर्म को ना जाना है,
नियत से उपर जिसने नियमों को माना है,
निकल जाओ ना कहीं दूर,
जहाँ तुम्हें जाना है।